अनु सिंह
लेखक झक्की होते हैं। आत्ममुग्ध भी। सारा दिन आवारगी करते हैं और आधी रात के बाद किरदारों को कभी अपना ऑल्टर इगो, कभी नेमेसिस बनाते हैं। कोने में अकेले बैठकर लिखते हैं और अपनी वाहवाहियां आप ही अपनी पीठ पर डाल दिया करते हैं। दुनिया में सबसे हुनरमंद खुद को मानते हैं और आलोचनाओं से ऐसे पिनकते हैं जैसे ४४० वोल्ट की नंगी तार ने छू लिया हो। लिखनेवालों के प्रति कुछ ऐसी ही धारणा थी मेरी भी। फिर चार लोग बैठकर मंडली में करते क्या होंगे? चाय की चुस्कियों के दम पर आख़िर कैसी बहस छिड़ती होगी? ये राइटर टाईप लोग हैं कौन और लिखना कोई किसी को भला क्या सिखाएगा?
मैंने इतने सारे पूर्वाग्रहों के होते हुए भी मंडे मंडली में शामिल होने का फ़ैसला किया। कुछ जिज्ञासा थी, कुछ नई कहानियां सुनने का ऑबसेसिव कम्पलसिव डिसॉर्डर। आनन-फानन में लिख दी दो कहानियां और भेज दीं मेल से। मेरी कहानी कोई क्या रिजेक्ट करेगा? जब बड़ी बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं ने नहीं किया तो ये नए राइटर लोग किस खेत की मूली हैं? लेकिन गुमान टूटा जब कहानी सबके सामने पढ़ी गई। मैं भूल गई थी कि आपकी कहानी पढते हुए खूबसूरत भाषा की जुगाली करता हुआ पाठक आपकी लेखन-शैली पर फिदा हो सकता है, लेकिन ऑडियो विजुअल फॉर्मैट में कहानी अहम होती है, भाषा नहीं। प्लॉट और क्लिफहैंगर कहानी की आधारशिलाएं होते हैं क्योंकि सुननेवाले के पास ना इतना वक्त होता है ना इतना अटेन्शन स्पैन कि वो आपकी अनकही बातों को प्रतीकों और बिंबों की भाषा में समझे।
उससे बड़ी बात ये कि एक सुरक्षा कवच के भीतर बैठकर आप किरदार नहीं रच सकते। किरदारों के प्रति मोह छोड़ना होगा, अपने बनाए तिलिस्म को दूसरों के सामने रखना होगा और उन्हें बार-बार तोडने-बनाने के लिए तैयार रहना होगा। आज पहली बार ये भी सीखा कि कहानियां साथ मिलकर कैसे बनाते-बिगाड़ते-संवारते हैं, कैसे किरदार सिर्फ आपके ही नहीं होते, उनमें सुननेवालों की भी धड़कनें होती हैं। ये भी जाना कि लिखना आइसोलेशन में नहीं हो सकता।
फिलहाल अफ़सोस सिर्फ इतना है कि स्काईप पर अदरक की चाय नहीं पी जा सकती साथ। मशरूम, भिंडी और दही बड़े का स्वाद नहीं मिलता। वैसे कंचन कहानी पढ़ रही होती हैं तो मैं मंडली की तस्वीरें खोलकर उनके चेहरे पर आते-जाते भावों की कल्पना कर सकती हूं। उस फ्लैट के लिविंग रूम में कहीं सोफे पर, कहीं कालीन पर पसरे मंडली मेंबर्स के बीच का हंसी-मज़ाक और सेंस ऑफ ह्यूमर भी समझ आने लगेगा धीरे-धीरे। उमेश, दुर्गेश और सम्राट की आवाज़ें पहचान सकूं, इसके लिए हो सकता है दो-चार स्काईप सेशन्स काफी हों। बाकी, याद शहर के तो हम सब वाशिंदे हैं और वक्त की धूल में गुम हुए शहर को ढूंढ कर दुनिया के सामने ले आने का दारोमदार इसी मंडे मंडली के नाज़ुक कंधों पर है।
Anu Singh is a fulltime Mum of 5 year old twins and a part-time Communications Consultant, Filmmaker and Writer. When she is not fretting over her kids’ cursive writing and running noses, Anu writes columns, translates poetry and dreams of creating a magnum opus one day. She is a trained journalist and has worked for leading national channels like Zee News and NDTV. In the past 4 years, she has directed four documentaries and co-directed many others. She has also written scripts for many well acclaimed documentaries like Guardians of Economic Frontiers (telecast on CNN-IBN and NDTV) and Notes from a Green City (Telecast on the National Geographic Channel).